Wednesday, 4 February 2015

महिमा वेदों की

बड़ा प्रबल यह कालचक्र, ब्रह्मप्रदत्त ये वेद हैंI
महिमा घटी कलियुग शुरू, पारस्परिक मतभेद हैंII

त्रिविश्तप वह पुण्यभूमि, आदिमनु प्रकट हुए जहाँI
भूलोक था जल विसर्जित, थी धरा दृष्टिगोचर कहाँII

था अविभाज्य वह अँग तब, उस महान आर्यावर्त काI
सत्य, अहिंसा, निष्कपटता, था धर्म उस आर्यावर्त काII

माँस, मदिरा से मुक्त पूर्वज, सभ्य दयालु आर्य थेI
सारे जगत के महाद्वीपों पर, करते धर्म के कार्य थेII

खोयी ख्याति इस कलियुगे, सब कुरीतियाँ फैलीं यहाँI
चले पथभ्रष्ट वैदिक धर्म से, लगी पापों भरी थैली यहाँII

ईश को ईश्वर न माना, मनुष्य पूजन चल पड़ेI
आचार्य थे पूर्ण विश्व के, तुम पुनःशिष्य बन पड़ेII

या नियम है इस प्रकृति का, उच्चशिखर जाता है जोI
गिरता सतह वह निम्नतम, अहंकारी हो जाता है जोII

हो माया मोह स्वार्थसिद्धि की, भावना से ओतप्रोत अबI
मुक्त होंगे इन बन्धनों से, तुम बनोगे प्रेरणा-स्रोत कबII

माना गुरु था विश्व ने, तुमने ही पाखण्डित कियाI
बने अज्ञानी तुम स्वयं तो, अज्ञान उनको भी दियाII

आओ ज्ञान आलोक में, अपना लो वेदों को स्वतःI
हों दूर अन्धविश्वास 'गज', प्रेरणात्मक होंगे फलतःII —

_मोहित गंगवार