फिल्म "बेबी" और भारतीय सिनेमा की जिम्मेदारियों के सन्दर्भ में मेरी ताज़ा रचना,
"pk बनाम BABY"
हमने जब pk देखी थी दिल में बहुत उदासी थी,
शिव जी के लज्जित द्रश्यों पर ख़ानों की अय्याशी थी,
किसे जरूरी था दिखलाना,किन्तु किसे दिखला बैठे,
और सिनेमा वाले जायज़ मुद्दे ही झुठला बैठे, देश का संकट नही सिर्फ है मंदिर में पूजा करना,
या फिर श्रध्दा से लोटे में गंगा के जल को भरना,
लेकिन कुछ नायक नंगे होकर किरदारी भूल गए,
ज़िम्मेदार सिनेमा वाले ज़िम्मेदारी भूल गए,
"बेबी"फिल्म बनाने वालों ने अच्छा उपकार किया,
टूट चुकी आशाओं का कितना बेहतर उपचार किया,
अवसर दिया सभी को सब कुछ सच्चा सच्चा देख सके,
वही दिखाया जिसे देश का बच्चा बच्चा देख सके ,
सबसे बड़ी समस्या जो है,उसका हाल दिखाया है,
बिना मज़हबी ज्ञान दिए,भारत से प्रेम सिखाया है,
नहीं ज़रुरत पड़ी दुसरे गृह से लोग बुलाने की,
या फिर नायक को कोठे वाली के साथ सुलाने की,
सैनिक का जीना मरना उनके मकसद के किस्से थे,
सिर्फ वतन की बात बताते,रील के हिस्से हिस्से थे,
इसको ही हिम्मत कहते है,जो बेबी ने दिखलाया,
दहशत की असली जगहों का नाम पता भी बतलाया,
हिम्मत ही तो है जो जीता अरब देश की खाड़ी को,
एक द्रश्य में मुंडवा डाला मौलाना की दाढ़ी को,
दहशतगर्द मुसल्मा थे सब,बेबी ने हैं दिखलाए,
pk तो मस्जिद में दारु तक भी न ले जा पाए,
pk वालों कुछ तो सीखो आखिर बेबी वालो से,
इक पलड़े को नहीं झुकाते,केवल चंद सवालों से,
बेबी ने तो एक मुसल्मा देश भक्त दिखलाया है,
pk ने तो सारा झंझट मन्दिर में ही पाया है,
नीरज पांडे धन्य रहो तुम,ऐसे ही निर्माण करो,
राष्ट्र धर्म की सेवा में अर्पित ये तन मन प्राण करो,
ज़रा सुनो "आमिर",जीवन में सब कुछ ढोंग नही होता,
और वतन पर डायल हो वो नंबर रोंग नही होता ........................
-मोहित गंगवार